Temple Architecture (देवालय वास्तु)

From Dharmawiki
Revision as of 16:38, 27 May 2025 by AnuragV (talk | contribs)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

देवालय वास्तु (संस्कृतः देवालयवास्तु) अर्थात देवता का निवास स्थान, इस भूलोक में देवता जिस भवन में निवास करते हैं, उस भवन को वास्तुशास्त्र में देवालय तथा प्रासाद कहा गया है। देवालय, राजगृह एवं भवनादि निर्माण में वास्तुशास्त्र का उपयोग वैदिक काल से देखने को प्राप्त होता है।

परिचय॥ Introduction

देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।[1] इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय लगाकर बना है -

मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।

मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये। ये कर्म हैं -

कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)

कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं।

देवालय निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त

भूमि निरूपण

गर्भगृह एवं मंडप

प्रासाद के प्रकार

प्रमुख शैलियां

देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां

देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -[2]

  1. उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली
  2. मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली
  3. दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली

नागरं द्राविणं चैव वेसरं च त्रिधा मतम्। कण्ठाद्यारभ्य वृत्तं यद् वेसरं चेति तत्स्मृतम्॥

ग्रीवामारभ्य चाष्टास्रं विमानं द्राविडाख्यकम्। सर्वं वै रचुरस्त्रं यत् प्रासादं नागरं त्विदम्॥ (समरांगण सूत्रधार)

नागर शैली

देवालय वास्तु - प्रमुख अंग

नागर शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण अथवा संख्या में बाहुल्य होने के कारण इन्हें नागर की संज्ञा दी गई है। शिल्पशास्त्र के अनुसार नागर मन्दिरों के आठ प्रमुख अंग हैं -

  1. मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
  2. मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
  3. जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
  4. कपोत- कार्निस।
  5. शिखर - मन्दिर का शीर्षभाग अथवा गर्भ गृह का ऊपरी भाग।
  6. ग्रीवा - शिखर का ऊपरी भाग।
  7. वर्तुलाकार आमलक - शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का भाग।
  8. कलश - शिखर का शीर्षभाग।

द्राविड़ शैली

वेसर शैली

शिखर प्रमाण

सारांश

उद्धरण

  1. डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु, सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।
  2. देवेन्द्र नाथ ओझा, देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श, सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।