Difference between revisions of "Nagara Vinyasa (नगर विन्यास)"

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नगर विन्यास (संस्कृतः नगर विन्यासः) वास्तु शास्त्र का अभिन्न अंग है। नगर एक ऐसा विशाल समूह है, जिसकी जीविका के प्रधान साधन उद्योग तथा व्यापार हैं। वह व्यावसायिक ग्राम से खाद्यान्न प्राप्त करता है, जबकि ग्राम उस क्षेत्र को कहते हैं, जबकि ग्राम उस क्षेत्र को कहते हैं, जहाँ जीविका के साधन-स्रोत प्रधान रूप से कृषि एवं कृषि उत्पाद हुआ करते हैं। नगर प्रधानतः उद्योग एवं व्यापार पर आधारित थे और ग्राम कृषि एवं पशुपालन पर आधारित थे।
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नगर विन्यास (संस्कृतः नगर विन्यासः) वास्तु शास्त्र का अभिन्न अंग है। प्राचीन भारत में नगर नियोजन की परंपरा अत्यंत विकसित और वैज्ञानिक थी, जो न केवल वास्तुकला और शहरी विकास को निर्देशित करती थी, अपितु सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी समाहित करती थी। यह परंपरा वैदिक ग्रंथों, वास्तुशास्त्र और अन्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित थी। नगर प्रधानतः उद्योग एवं व्यापार पर और ग्राम कृषि एवं पशुपालन पर आधारित थे। राज्य आदि की वृद्धि में नगर आदि का विशेष योगदान रहा है।
  
 
== परिचय॥ Introduction ==
 
== परिचय॥ Introduction ==
प्राचीन भारत में नगर नियोजन की परंपरा अत्यंत विकसित और वैज्ञानिक थी, जो न केवल वास्तुकला और शहरी विकास को निर्देशित करती थी, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी समाहित करती थी। यह परंपरा वैदिक ग्रंथों, वास्तुशास्त्र, और अन्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित थी। राज्य आदि की वृद्धि में नगर आदि का विशेष योगदान रहा है। वर्तमान में भी नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है। अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए।
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नगर एक ऐसा विशाल समूह है, जिसकी जीविका के प्रधान साधन उद्योग तथा व्यापार हैं। वह व्यावसायिक ग्राम से खाद्यान्न प्राप्त करता है, जबकि ग्राम उस क्षेत्र को कहते हैं, जहाँ जीविका के साधन-स्रोत प्रधान रूप से कृषि एवं कृषि उत्पाद हुआ करते हैं। वर्तमान में भी नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है। अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए।
 
* नगर के पूर्व दिशा का फाटक सूर्य पद के सम्मुख
 
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*दक्षिण दिशा का फाटक गन्धर्व पद में
 
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*उत्तर दिशा का फाटक सोम पद सम्मुख रहना चाहिये।
 
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नगर के पूर्वी फाटक के दोनों ओर लक्ष्मी तथा कुबेर की मूर्तियों को आमने-सामने स्थापित करना चाहिये। इसके अनन्तर चारों वर्गों का वास नगर के किस-किस दिशा में होना चाहिये, इसका भी स्वरूप स्पष्ट प्राप्त होता है -<ref>शोध गंगा - इन्द्र बली मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/457712/8/08_chapter4.pdf वैदिक वाड़्मय में वास्तु-तत्त्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन], सन २०१८, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५६)।</ref><blockquote>पश्चिमे च महामात्यान्कोषपालांश्च कारुकान्। उत्तरे दण्डनाथांश्च नायक द्विज संकुलान्॥
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नगर के पूर्वी फाटक के दोनों ओर लक्ष्मी तथा कुबेर की मूर्तियों को आमने-सामने स्थापित करना चाहिये। इसके अनन्तर चारों वर्गों का वास नगर के किस-किस दिशा में होना चाहिये, इसका भी स्वरूप स्पष्ट प्राप्त होता है -<ref>शोध गंगा - इन्द्र बली मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/457712/8/08_chapter4.pdf वैदिक वाड़्मय में वास्तु-तत्त्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन], सन २०१८, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५६)।</ref><blockquote>पश्चिमे च महामात्यान्कोषपालांश्च कारुकान्। उत्तरे दण्डनाथांश्च नायक द्विज संकुलान्॥ पूर्वतः क्षत्रियान्दक्षे वैश्याञ्छूद्रांश्च पश्चिमे। दिक्षु वैद्यान्वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AC अग्निपुराण], अध्याय-१०६, श्लोक- ११-१२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' शाला तथा अलिन्दक (बरामदा) आदि के भेद से चतुःशाला भवन दो सौ प्रकार के हो जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के पचपन-पचपन भेद बतलाये गये हैं।
 
 
पूर्वतः क्षत्रियान्दक्षे वैश्याञ्छूद्रांश्च पश्चिमे। दिक्षु वैद्यान्वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AC अग्निपुराण], अध्याय-१०६, श्लोक- ११-१२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' शाला तथा अलिन्दक (बरामदा) आदि के भेद से चतुःशाला भवन दो सौ प्रकार के हो जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के पचपन-पचपन भेद बतलाये गये हैं।
 
  
 
'''नगर-उद्यान॥ Nagara Udyana'''
 
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===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra===
 
===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra===
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[[File:अर्थशास्त्र में नगर प्रकार .jpg|thumb|320x320px|ग्राम आधारित - नगर संज्ञा]]
 
आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए। नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार -
 
आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए। नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार -
 
*ग्राम की लंबाई 1-2 क्रोश (कोस) होनी चाहिए।
 
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Revision as of 12:57, 20 May 2025

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नगर विन्यास (संस्कृतः नगर विन्यासः) वास्तु शास्त्र का अभिन्न अंग है। प्राचीन भारत में नगर नियोजन की परंपरा अत्यंत विकसित और वैज्ञानिक थी, जो न केवल वास्तुकला और शहरी विकास को निर्देशित करती थी, अपितु सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी समाहित करती थी। यह परंपरा वैदिक ग्रंथों, वास्तुशास्त्र और अन्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित थी। नगर प्रधानतः उद्योग एवं व्यापार पर और ग्राम कृषि एवं पशुपालन पर आधारित थे। राज्य आदि की वृद्धि में नगर आदि का विशेष योगदान रहा है।

परिचय॥ Introduction

नगर एक ऐसा विशाल समूह है, जिसकी जीविका के प्रधान साधन उद्योग तथा व्यापार हैं। वह व्यावसायिक ग्राम से खाद्यान्न प्राप्त करता है, जबकि ग्राम उस क्षेत्र को कहते हैं, जहाँ जीविका के साधन-स्रोत प्रधान रूप से कृषि एवं कृषि उत्पाद हुआ करते हैं। वर्तमान में भी नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है। अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए।

  • नगर के पूर्व दिशा का फाटक सूर्य पद के सम्मुख
  • दक्षिण दिशा का फाटक गन्धर्व पद में
  • पश्चिम दिशा का फाटक वरुण पद में
  • उत्तर दिशा का फाटक सोम पद सम्मुख रहना चाहिये।

नगर के पूर्वी फाटक के दोनों ओर लक्ष्मी तथा कुबेर की मूर्तियों को आमने-सामने स्थापित करना चाहिये। इसके अनन्तर चारों वर्गों का वास नगर के किस-किस दिशा में होना चाहिये, इसका भी स्वरूप स्पष्ट प्राप्त होता है -[1]

पश्चिमे च महामात्यान्कोषपालांश्च कारुकान्। उत्तरे दण्डनाथांश्च नायक द्विज संकुलान्॥ पूर्वतः क्षत्रियान्दक्षे वैश्याञ्छूद्रांश्च पश्चिमे। दिक्षु वैद्यान्वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशम्॥ (अग्निपुराण)[2]

भाषार्थ - शाला तथा अलिन्दक (बरामदा) आदि के भेद से चतुःशाला भवन दो सौ प्रकार के हो जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के पचपन-पचपन भेद बतलाये गये हैं।

नगर-उद्यान॥ Nagara Udyana

रामायण एवं पुराणों में अनेक नगर-उद्यानों का वर्णन प्रसंगतः प्राप्त होता है। विविध उपवनों से युक्त द्वारका पुरी, नन्दन-वन से युक्त अमरावती, उद्यान एवं वापी से युक्त व्रज का रास-मण्डल, श्रीपुर का महा-उद्यान, नागकेसर से युक्त जमदग्नि पुरी, उद्यान युक्त वाराणसी, आम्रवन से युक्त अयोध्या तथा वन, उपवन आदि से सुशोभित लंकापुरी आदि उदाहरण प्राप्त होते हैं।[3]

नगर-व्यवस्था॥ Nagara Vyavastha

नगरों का निर्माण नदियों के किनारे किया जाता था। नगर निर्माण के लिए लंबे-चौडे आयताकार भूखंड का चयन किया जाता था तथा इन्हें दुर्गों (Fort), प्राकारों (Ramparts) से घेरा जाता था जिससे कि नगर की शत्रुओं तथा बाढ़ आदि से सुरक्षा हो सके। मोहनजोदडो और लोथल की खुदाई (२३००-१७०० ई०पू०) में ऐसे उपकरण प्राप्त हुए हैं जिनसे भूमि का सर्वेक्षण (Land Survey) तथा सीमाओं का निर्धारण (Fixing of Cardinal Points) किया जाता था। स्थापत्य (Architecture), राजगीरी (Masonery) एवं काष्ठ-कला (Carpentry) से संबंधित उपकरण भी इस खुदाई में प्राप्त हुए हैं। नगर निवेश हेतु वास्तु के प्रमुख विचारणीय अंश इस प्रकार हैं - [4]

  • नगर निवेश के वास्तुशास्त्रीय दृष्टिकोण से चारों दिशाओं में द्वार होने चाहिये।
  • नगर के सभी द्वार गोपुरों से परिवेष्ठित होने चाहिये।
  • नगरमें वास भवनों का सम्यक विन्यास होना चाहिये।
  • नगर मापन
  • भूमि संग्रह -भूमि चयन
  • नगर दिक परीक्षा
  • पद - विन्यास
  • नगराभ्युदयिक शान्तिक एवं बलिकर्म विधान
  • मार्ग - विन्यास
  • प्राकार-परिखा-वप्रादि विन्यास योजना
  • अट्टालक, कपिशीर्षक, चरिकादि विन्यास
  • द्वार एवं गोपुर विधान
  • भवन निवेश
  • मण्डप विधान
  • राजवेश्म योजना
  • आरमोद्या, पुष्प वीथिकायें, पुरजन विहार, आदि

नगर-व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग थे - 1. परिख (Moat), 2. प्राकार - नगर के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार (Rampart) 3. द्वार (Gate)।

बौद्ध जातक ग्रंथो में पत्तन (Port Town), निगम (Market Town) एवं दुर्ग (Fort) का वर्णन है।

नगर विन्यास एवं भवन निवेश॥ Nagar Vinyasa evam Bhavan Nivesh

गृह में वास करने के कारण ही गृहस्थ कहा जाता है। एक निश्चित स्थान में स्थित रहकर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) का सेवन करते हुए एक धार्मिक समाज का निर्माण करने वाला ही गृहस्थ कहलाता है -[5]

त्रिवर्गसेवी सततं देवतानां च पूजनम्। कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान्॥ विभागशीलः सततः क्षमायुक्तो दयालुकः। गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ (कूर्मपुराण)[6]

गुण सम्पन्न कोई भी गृहस्थ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बिना स्वगृह के सम्यक्तया नहीं कर सकता है। दूसरे के गृह में किये गये श्रौत-स्मार्त कर्म का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होता है। वह सम्पूर्ण फल गृहेश को ही चला जाता है। अतः सर्वप्रथम गृहस्थ को यत्नपूर्वक गृह का निर्माण करना चाहिए।

मानसार नगर व्यवस्था॥ Manasara Nagar Vyavastha

मानसार के अनुसार सबसे छोटा आवासीय परिसर (Dwelling Unit) 100 x 200 x 4 हाथ (Cubits) का तथा सबसे बडा आवासीय परिसर 7200 x 14000 x 4 हाथ का होना चाहिए। नगरों को समुद्र, नदी या पर्वतों के किनारे बनाया जाना चाहिए तथा इसमें व्यापार आदि की व्यवस्था पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण दिशा में की जानी चाहिए। मानसार में नगरों को 8 प्रकारों में बांटा गया है -[7]

1. राजधानी 2. नगर 3. पुर 4. नगरी 5. खेत 6. खर्वत 7. कुब्जक और 8. पत्तन। नगर-व्यवस्था के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता था -

  1. भू-परीक्षा - Examination of land and soil
  2. भूमि-चयन - Site Selection
  3. दिक्-परिच्छेद - Determination of Cardinal Points
  4. पद विन्यास - Survey and mapping of the arc and marking into squares
  5. बलिकर्मविधान - Sacrificial rituals
  6. ग्राम-नगर विन्यास - Layout and planning of Village and City
  7. भूमि-विन्यास - Layout of the plot
  8. गोपुर-विधान - Construction of Palace
  9. मंडप-विधान - Construction of Temples

शुक्रनीतिसार के अनुसार नगर-विन्यास योजना को मूर्तरूप देने वाले व्यक्ति -

1. गृहाधिपति (Minister of planning)

2. स्थपति (Master Architect)

3. सूत्रग्राहिक (Surveyor)

4. तक्षक (Carpenter)

5. वर्धकी (Wood cutter)

अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra

ग्राम आधारित - नगर संज्ञा

आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए। नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार -

  • ग्राम की लंबाई 1-2 क्रोश (कोस) होनी चाहिए।
  • 800 ग्रामों के केंद्र में एक स्थानीय (Distt. Town) होना चाहिए।
  • 400 ग्रामों में एक द्रोणमुख (Big Town) बनाया जाए।
  • 200 ग्रामों पर एक खरवाटिका (Town)।
  • दस गांवों में एक संग्रहण (Small Township) होना चाहिए।

समरांगणसूत्रधार के अनुसार नगर में लक्ष्मी माता, गणेशजी कुबेर इत्यादि सौम्य देवताओं मूर्ति की स्थापना अवश्य करनी चाहिए। देश में खेट (छोटा गांव), ग्राम, पुर, नगर इत्यादि को जब देवता अपनी शुभ दृष्टि से देखते है तो वहां के लोग आरोग्य, अर्थसिद्धि और सर्वत्र विजय को प्राप्त करके खुशहाल रहते हैं -

नगराभिमुखौ कार्यों सम्पूर्णाङ्गमहोदयौ। द्वारे-द्वारे सौम्यमुखौ लक्ष्मीवैश्रवणौ तथा॥ राष्ट्रं खेटमथ ग्रामं पश्यतस्तौ पुरं च यत्। तत्रारोग्यार्थसंसिद्धी प्रजाविजयमादिशेत्॥ (समरांगणसूत्रधार)[8]

मत्स्य पुराण के अनुसार देव मंदिर का निर्माण कराने वाले को या देव मंदिर का सुधार, रख रखाब पुनरुद्धार मरम्मत इत्यादि कार्य करने वालों को जब तक उस मंदिर का अस्तित्त्व रहता है तब तक उस व्यक्ति को कुल परिवार और पूर्वजों सहित भगवान श्री हरि विष्णु जी के लोक में वास करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

कौटिल्य का नगर नियोजन न केवल भौतिक संरचना तक सीमित था, अपितु उसमें सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, धार्मिक और नैतिक पक्षों का गहरा समावेश था। कौटिल्य का यह दृष्टिकोण आज के स्मार्ट सिटी मॉडल की नींव रखने वाला एक समग्र एवं दूरदर्शी विचार है।

सारांश॥ Summary

उद्धरण॥ References

  1. शोध गंगा - इन्द्र बली मिश्रा, वैदिक वाड़्मय में वास्तु-तत्त्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन, सन २०१८, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५६)।
  2. अग्निपुराण, अध्याय-१०६, श्लोक- ११-१२।
  3. प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, पत्रिका-वास्तुशास्त्रविमर्श-बाग एवं वाटिका, सन-२००७, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (पृ० १२९)।
  4. सुनील कुमार त्रिपाठी, नगर भेद एवं वास्तु-योजना, सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १५९)।
  5. प्रो० देवीप्रसाद त्रिपाठी, वास्तुशास्त्रविमर्श-सम्पादकीय, सन २०१०, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नव देहली (पृ० ४)।
  6. कूर्म पुराण, उत्तर भाग, अध्याय-15, श्लोक-24-25।
  7. श्वेता उप्पल, संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी, सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।
  8. महाराज भोजदेव, समरांगणसूत्रधार-पुरनिवेश अध्याय, सन-१९२४, सेंट्रल लाईब्रेरी, बरौदा, अध्याय १०, श्लोक-१०४-१०५ (पृ० ४७)।