Difference between revisions of "Vastu Shastra (वास्तु शास्त्र)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(सुधार जारी)
(सुधार जारी)
 
(One intermediate revision by the same user not shown)
Line 12: Line 12:
  
 
'''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं।
 
'''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं।
 +
 +
== वास्तु शास्त्र एवं कला॥ Vaastu Shastra and Kala ==
 +
शुक्राचार्य जी ने शास्त्र और कला पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार वाणी द्वारा जो व्यक्त होती है वह विद्या है और मूक भी जिसे व्यक्त कर सकता है वह कला है। संस्कृत साहित्य में ६४ आभ्यन्तर और ६४ बाह्य कलाएं बतायी गयी हैं।<ref>शोध गंगा - ऋचा पाण्डेय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/588927 वैदिक वास्तु एवं सैंधव वास्तुकला एक अध्ययन], सन २००७, शोध केन्द्र - लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १४)।</ref> पुराणों और शास्त्रों जैसे - अर्थशास्त्र और शुक्रनीति में भवनों , महलों, सेतुओं, नहरों, दुर्गों, बाँधों, जलाशयों, सड़कों, उद्यानों के निर्माण की कला या विज्ञान का उल्लेख किया गया है और इसको ही वास्तुविद्या या वास्तुशास्त्र कहा गया है।<ref>डॉ० निहारिका कुमार, [https://www.sieallahabad.org/hrt-admin/book/book_file/9aebed762a60ebedd4fa3ed8f2efb1ac.pdf वास्तु पुरुष का पौराणिक स्वरूप एवं उसका महत्व], सहायक उप शिक्षा निदेशक राज्य शिक्षा संस्थान, प्रयागराज (पृ० ५५)।</ref>
  
 
==वास्तुशास्त्र का स्वरूप॥ Vastushastra ka Svarupa==
 
==वास्तुशास्त्र का स्वरूप॥ Vastushastra ka Svarupa==
Line 38: Line 41:
 
यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref>
 
यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref>
 
==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha==
 
==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha==
 
 
मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥
 
मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥
  
Line 57: Line 59:
 
!देवता
 
!देवता
 
!शरीर अंग
 
!शरीर अंग
! देवता
+
!देवता
 
!शरीर में निवासांग
 
!शरीर में निवासांग
 
!देवता
 
!देवता
Line 77: Line 79:
 
|-
 
|-
 
|3. जयंत
 
|3. जयंत
|लिंगमें
+
|लिंग
 
|18.दौवारिक
 
|18.दौवारिक
 
|
 
|
Line 127: Line 129:
 
|10. पूष
 
|10. पूष
 
|
 
|
| 25. रोग
+
|25. रोग
 
|
 
|
 
|40.बिबुधाधिप
 
|40.बिबुधाधिप
Line 198: Line 200:
 
वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश व नगरों के निर्माण की योजना से लेकर छोटे-छोटे भवनों और उनमें रखे जाने वाले फर्नीचर और वाहन निर्माण तक की योजना आ जाती है। सामान्यतः इसका मुख्य संबंध भवन निर्माण की कला है।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/15/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५)।</ref>
 
वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश व नगरों के निर्माण की योजना से लेकर छोटे-छोटे भवनों और उनमें रखे जाने वाले फर्नीचर और वाहन निर्माण तक की योजना आ जाती है। सामान्यतः इसका मुख्य संबंध भवन निर्माण की कला है।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/15/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५)।</ref>
  
=== दक्षिण परम्परा एवं उत्तर परम्परा ===
+
===दक्षिण परम्परा एवं उत्तर परम्परा===
 
भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्य शिल्प की दो प्रमुख परंपरा मानी गई है। प्रथम दक्षिण परंपरा जो कि द्रविड़ शैली है दूसरी उत्तर परंपरा जिसे नागर शैली माना गया है। जहां दक्षिण की द्रविड़ शैली और उत्तर की नागर शैली दोनों शैलियों के अपने-अपने सुंदर निदर्शन होते रहे हैं वहीं दोनों एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव भी डालते हैं।
 
भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्य शिल्प की दो प्रमुख परंपरा मानी गई है। प्रथम दक्षिण परंपरा जो कि द्रविड़ शैली है दूसरी उत्तर परंपरा जिसे नागर शैली माना गया है। जहां दक्षिण की द्रविड़ शैली और उत्तर की नागर शैली दोनों शैलियों के अपने-अपने सुंदर निदर्शन होते रहे हैं वहीं दोनों एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव भी डालते हैं।
  
==== दक्षिण परम्परा - द्रविड़ शैली के आचार्य ====
+
====दक्षिण परम्परा - द्रविड़ शैली के आचार्य====
 
दक्षिण परंपरा द्रविड़ शैली इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय आचार्य इस प्रकार से हैं -  
 
दक्षिण परंपरा द्रविड़ शैली इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय आचार्य इस प्रकार से हैं -  
  
 
ब्रह्मा, त्वष्टा, मय, मातंग, भृगु, काश्यप, अगस्त, शुक्र, पराशर, भग्नजित, नारद, प्रह्लाद, शुक्र, बृहस्पति और मानसार। वहीं मत्स्य पुराण बृहत्संहिता में २५ आचार्यों का निर्देश मिलता है जिनमें से बहुसंख्यक आचार्य द्रविड़ परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं तथा कुछ नागर परंपरा के।
 
ब्रह्मा, त्वष्टा, मय, मातंग, भृगु, काश्यप, अगस्त, शुक्र, पराशर, भग्नजित, नारद, प्रह्लाद, शुक्र, बृहस्पति और मानसार। वहीं मत्स्य पुराण बृहत्संहिता में २५ आचार्यों का निर्देश मिलता है जिनमें से बहुसंख्यक आचार्य द्रविड़ परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं तथा कुछ नागर परंपरा के।
  
==== दक्षिण परम्परा के वास्तु ग्रन्थ ====
+
====दक्षिण परम्परा के वास्तु ग्रन्थ====
 
जिनमें शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि संहिता, वैखानसागम, तंत्रग्रंथ, तंत्र समुच्चय, ईशान शिवगुरु, देव पद्धति इन सभी में आगम साहित्य अत्यधिक विशाल हैं इनमें वास्तुविद्या का वर्णन एवं विवेचन उत्कृष्ट प्रकार से किया गया है।
 
जिनमें शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि संहिता, वैखानसागम, तंत्रग्रंथ, तंत्र समुच्चय, ईशान शिवगुरु, देव पद्धति इन सभी में आगम साहित्य अत्यधिक विशाल हैं इनमें वास्तुविद्या का वर्णन एवं विवेचन उत्कृष्ट प्रकार से किया गया है।
  
=== उत्तर परंपरा - नागर शैली आचार्य ===
+
===उत्तर परंपरा - नागर शैली आचार्य===
 
उत्तर परंपरा (नागर शैली) इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्य विश्वकर्मा ने स्वयं पितामह से यह विद्या ग्रहण की है। मत्स्य पुराण में धर्म की १० पत्नियों में से वसु नाम की पत्नी से ८ पुत्रों में से प्रभास नामक पुत्र हुए प्रभास से विश्वकर्मा हुए जो शिल्प विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे प्रजापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। विश्वकर्मा, प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, जलाशय, बगीचा तथा कूप इत्यादि निर्माण में देवताओं के बडे ही हुए।
 
उत्तर परंपरा (नागर शैली) इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्य विश्वकर्मा ने स्वयं पितामह से यह विद्या ग्रहण की है। मत्स्य पुराण में धर्म की १० पत्नियों में से वसु नाम की पत्नी से ८ पुत्रों में से प्रभास नामक पुत्र हुए प्रभास से विश्वकर्मा हुए जो शिल्प विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे प्रजापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। विश्वकर्मा, प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, जलाशय, बगीचा तथा कूप इत्यादि निर्माण में देवताओं के बडे ही हुए।
 +
 +
'''उत्तर परम्परा के वास्तु ग्रन्थ'''
 +
 +
==वास्तुशास्त्र एवं प्राकृतिक ऊर्जा==
 +
वास्तु शास्त्र भवन निर्माण के सन्दर्भ में एक ऐसा विज्ञान है, जो कि किसी भवन अथवा आवास के अन्दर स्थित अदृश्य ऊर्जाओं और उनके द्वारा भवन में रहने वाले लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें जानकारी प्रदान करता है। हमारे चारों ओर विविध प्रकार की ऊर्जाओं के क्षेत्र (Energy Fields) विद्यमान हैं, जो कि हमें निरंतर प्रभावित कर रहे हैं। वास्तुशास्त्र का उपयोग किसी भवन विशेष में स्थित प्राकृतिक ऊर्जाओं में परस्पर समन्वय स्थापित कर भवन में सकारात्मक ऊर्जाओं का प्रवाह सुनिश्चित किया जाता है। वस्तुतः विविध प्रकार की ऊर्जा अथवा शक्तियां जैसे - <ref>डॉ० योगेंद्र शर्मा, [https://archive.org/details/block-2_202312/Block-4/page/321/mode/1up वास्तुशास्त्र की अवधारणा], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१९)।</ref>
 +
 +
*सौर ऊर्जा (Solar Energy)
 +
*चन्द्र ऊर्जा (Lunar Energy)
 +
*पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा (Earth Energy)
 +
*पृथ्वी का घूर्णन (Rotation of Earth)
 +
*पृथ्वी का परिक्रमण (Revolution of Earth)
 +
*गुरुत्वाकर्षणीय शक्ति (Gravitational Energy)
 +
*विद्युतीय ऊर्जा (Electric Energy)
 +
*चुम्बकीय ऊर्जा (Magnetic Energy)
 +
*पवन ऊर्जा (Wind Energy)
 +
*तापीय ऊर्जा (Thermal Energy)
 +
*ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Cosmic Energy) इत्यादि हमें सतत प्रभावित करती रहती हैं।
  
 
==वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga==
 
==वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga==
 
 
वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥
 
वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥
  
Line 261: Line 279:
 
वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref>
 
वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref>
  
इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद् थे।
+
इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद थे।
  
 
==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra==
 
==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra==
 +
 
भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४,  छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥
 
भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४,  छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥
  
वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है।
+
वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है।
  
 
इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है।
 
इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है।
Line 283: Line 302:
 
ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥
 
ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥
  
छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है।
+
छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है।
  
 
==सारांश॥ Summary==
 
==सारांश॥ Summary==

Latest revision as of 22:50, 28 June 2025

ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

वास्तु शास्त्र (संस्कृतः वास्तुशास्त्रम्) भारतीय स्थापत्य कला का भवनों, मंदिरों और नगरों के निर्माण संबंधी सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। निवास-योग्य भूमि की संज्ञा वास्तु है और वास्तु अर्थात भवन से संबंधित शास्त्र को वास्तुशास्त्र कहा जाता है। वास्तुशास्त्र से संबंधित जानकारी हमें संस्कृत वांग्मय में समरांगणसूत्रधार, मयमतम्, मानसार, बृहत्संहिता, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं शुक्रनीतिसार आदि ग्रन्थों से प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों में नगर-व्यवस्था, भवन-निर्माण, वास्तुमंडल, प्रासादमंडल, मूर्तिकला, कूप, वापी, तडाग आदि के निर्माण करने के विषय में बताया गया है।

परिचय॥ Introduction

मनुष्य के निवास योग्य भूमि एवं भवन को वास्तु कहते हैं और जिस शास्त्र में भूमि एवं भवन में आवास करने वाले लोगों को अधिकतम सुविधा और सुरक्षा प्राप्ति के नियमों, सिद्धान्तों तथा प्रविधियों का प्रतिपादन किया जाता है। उस शास्त्र को वास्तु शास्त्र कहते हैं। वास्तुशास्त्र को गृह निर्माण का विज्ञान कहते है। यह प्राचीन उपदेशो का संकलन है, जो बताते है, कि कैसे प्रकृति के नियम हमारे आवास को प्रभावित करते हैं। इसे वास्तु शास्त्र, वास्तु वेद और वास्तुविद्या के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान समय में भी यह प्रासंगिक है, और भवन निर्माण में इसे विचार किया जाता है।

वास्तु शास्त्र में घर की साज सज्जा के रेखांकन दिशात्मक संरेखण पर आधारित होते हैं। वास्तु प्राणी मात्र की आधारभूत आवश्यकता है। प्राणी चाहे मनुष्य हो या मनुष्येतर सभी को आवास चाहिये। मनुष्य मकान बनाकर रहते हैं तो जलचर समुद्र, नदी या तालाब के किनारे, नभचर घोसलों, पेडों के कोटरों या पुराने खण्डहरों में रहते हैं। खुले आसमान के नीचे रहने वाले पशु-पक्षी भी अपने बच्चों के जन्म से पहले उनकी सुरक्षा एवं सुविधा को ध्यानमें रखते हुये सुरक्षित स्थान पर आवास की व्यवस्था कर लेते हैं। व्यवस्थित जीवन के लिये वास्तु हमारी पहली आवश्यकता है। इस प्रकार जिस भूमि या भवन में मनुष्य रहते हैं उसे वास्तु कहते हैं।

परिभाषा॥ Definition

वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है -

वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम्। (शब्द कल्पद्रुम)[1]

अर्थ - वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।

गृह रचनावच्छिन्नभूमे। (अमर कोश)

अर्थ- गृह रचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं।

वास्तु के पर्यायवाची शब्द- आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।[2]इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं।

वास्तु शास्त्र एवं कला॥ Vaastu Shastra and Kala

शुक्राचार्य जी ने शास्त्र और कला पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार वाणी द्वारा जो व्यक्त होती है वह विद्या है और मूक भी जिसे व्यक्त कर सकता है वह कला है। संस्कृत साहित्य में ६४ आभ्यन्तर और ६४ बाह्य कलाएं बतायी गयी हैं।[3] पुराणों और शास्त्रों जैसे - अर्थशास्त्र और शुक्रनीति में भवनों , महलों, सेतुओं, नहरों, दुर्गों, बाँधों, जलाशयों, सड़कों, उद्यानों के निर्माण की कला या विज्ञान का उल्लेख किया गया है और इसको ही वास्तुविद्या या वास्तुशास्त्र कहा गया है।[4]

वास्तुशास्त्र का स्वरूप॥ Vastushastra ka Svarupa

वास्तुशास्त्र की उपयोगिता के कारण विषय विभाग के द्वारा मुख्यतः तीन प्रकार किये गये हैं- आवासीय वास्तु, व्यावसायिक वास्तु एवं धार्मिक वास्तु।[5]

  • आवासीय वास्तु- आवासीय वास्तु मुख्यतः पाँच प्रकार की होती है-
  1. पर्णकुटी- घास फूस से बनी झोपडी।
  2. लकडी के घर- लकडी के द्वारा निर्मित घर जैसे- नेपाल में पशुपतिनाथ मन्दिर।
  3. कच्चे घर- मिट्टी, छप्पर या खपरैल से बने कच्चे घर।
  4. पक्के घर(ईंट से निर्मित)- ईंट, चूना, लोहा एवं सीमेन्ट से बने पक्के घर।
  5. पत्थर से बनी हवेलियाँ- पत्थर से बनी हवेलियाँ/महल आदि। वर्तमान समय में मकान व फ्लैट।
  • व्यावसायिक वास्तु- व्यावसायिक वास्तु दो प्रकार की होती है-व्यापारिक एवं औद्योगिक।
  1. व्यापारिक वास्तु- व्यापारिक वास्तु के तीन प्रकार होते हैं- दुकान, शोरूम, आँफिस एवं होटल।
  2. औद्योगिक वास्तु- औद्योगिक वास्तु के तीन भेद हैं- घरेलू इकाई, लघु उद्योग एवं बृहद् उद्योग।
  • धार्मिक वास्तु- धार्मिक वास्तु पाँच प्रकार की होती है-
  1. मन्दिर आदि- धार्मिक वास्तुओं में मन्दिर आदि से तात्पर्य पूजा स्थलों से है।
  2. मठ आदि- मठ का अर्थ-आश्रम, बौद्ध विहार आदि से है।

वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि -

किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम्॥ यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥ (बृहत्संहिता)

अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।[6]

वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha

मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-

तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ ललाटस्वेदसलिलमपतद् भुवि भीषणम् ।करालवदनं तस्माद् भूतमुद्भूतमुल्बणम्॥ (मत्स्य पुराण)

एक बार भगवान् शिव एवं दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ा जो बहुत लम्बे समय तक चलता रहा। दानवों से लड़ते लड़ते भगवान् शिव जब बहुत थक गए तब उनके शरीर से अत्यंत ज़ोर से पसीना बहना शुरू हो गया। शिव के पसीना की बूंदों से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखने में ही बहुत क्रूर लग रहा था। शिव जी के पसीने से जन्मा यह पुरुष बहुत भूखा था इसलिए उसने शिव जी की आज्ञा लेकर उनके स्थान पर युद्ध लड़ा व सब दानवों को देखते ही देखते खा गया और जो बचे वो भयभीत हो भाग खड़े हुए। यह देख भगवान् शिव उस पर अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। समस्त दानवों को खाने के बाद भी शिव जी के पसीने से जन्मे पुरुष की भूख शांत नहीं हुई थी एवं वह बहुत भूखा था इसलिए उसने भगवान शिव से वरदान माँगा-

हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनों लोक खाने की अनुमति प्रदान करें। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी। फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। तब भयभीत हुये देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास के कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ।[7]

वास्तु मंडल॥ Vastu Mandala

वास्तु मण्डल के अन्तर्गत पैंतालीस(४५) देवगणों एवं राक्षसगणों को सम्मलित रूप से "वास्तु पुरुष मंडल" कहा जाता है जो निम्न प्रकार हैं -

पूर्वोत्तरदिङ् मूर्धा पुरुषोऽयमवाङ् मुखोऽस्य शिरसि शिखा। आपो मुखे स्तनेऽस्यार्यमा ह्युरस्यापवत्सश्च॥

पर्जन्याद्या बाह्य दृक् श्रवणोः स्थलांसगा देवाः। सत्याद्याः पञ्च भुजे हस्ते सविता च सावित्रः॥

वितथो बृहत्क्षतयुतः पार्श्वे जठरे स्थितो विवस्वांश्च। ऊरू जानु च जङ्घे स्फिगिति यमाद्यैः परिगृहीताः॥

एते दक्षिणपार्श्वे स्थानेश्वेवं च वामपार्श्वस्थाः।मेढ्रे शक्रजयन्तौ हृदये ब्रह्मा पिताऽङ्घ्रिगतः॥ (बृहत्संहिता)

अर्थात

(वास्तु पुरुष शरीर में अधिष्ठित देवता सारिणी)
देवता शरीर अंग देवता शरीर में निवासांग देवता अंग
1. अग्नि शिखी 16. इंद्र लिंगमें 31. अदिति कानमें
2. पर्जन्य 17. पितृगण 32. दिति नेत्रमें
3. जयंत लिंग 18.दौवारिक 33. अप
4.कुलिशायुध 19. सुग्रीव 34. सावित्र
5. सूर्य 20. पुष्प दंत 35. जय
6. सत्य 21. वरुण 36. रुद्र
7. वृष 22. असुर 37. अर्यमा
8. आकश 23. पशु 38. सविता
9. वायु 24. पाश 39. विवस्वान्
10. पूष 25. रोग 40.बिबुधाधिप
11. वितथ 26. अहि 41. मित्र
12. मृग 27. मोक्ष 42. राजपक्ष्मा
13. यम 28. भल्लाट 43. पृथ्वी धर स्तनमें
14. गन्धर्व 29. सोम 44. आपवत्स छातीमें
15. ब्रिंगवज 30. सर्प 45. ब्रह्मा

वास्तुमण्डल विभाग॥ Vastumandala Vibhaga

वास्तु मण्डल के मुख्यतः तीन विभाग होते हैं-

  1. एकाशीतिपद वास्तु (८१ पद)
  2. चतुष्षष्ठी पद वास्तु (६४ पद)
  3. शत-पद-वास्तु (१०० पद)

इन पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो ने शिव भक्त के विभिन्न अंगों पर बल दिया एवं निम्नवत स्थिति अनुसार उस पर बैठे-

अग्नि- सिर पर; अप- चेहरे पर; पृथ्वी धर और अर्यमा- छाती (चेस्ट); आपवत्स- दिल (हृदय); दिति और इंद्र- कंधे; सूर्य और सोम - हाथ; रुद्रा और राजपक्ष्मा- बायां हाथ; सावित्र और सविता - दाहिने हाथ; विवस्वान् और मित्र- पेट; पूष और अर्यमा- कलाई; असुर और शीश- बायीं ओर; वितथ- दायीं ओर; यम और वायु- जांघों; गन्धर्व और पर्जन्य - घुटनों पर; सुग्रीव और वृष- शंक; दौवारिक और मृग- घुटने; जय और सत्य- पैरों पर उगने वाले बाल पर; ब्रह्मा- हृदय पर विराजमान हुए।

इस तरह से बाध्य होने पर, वह पुरुष औंधे मुँह नीचे ही दबा रहा। उसने उठने के भरपूर प्रयास किये किन्तु वह असफल रहा अत्यंत भूखा होने के कारण वह अंत में वह जोर जोर से चिल्लाने व रोने लगा व छोड़ने के लिए करुण निवेदन करने लगा। उसने कहा की आप लोग कब तक मुझे इस प्रकार से बंधन में रखेंगे? मैं कब तक इस प्रकार सर नीचे करे पड़ा रहूँगा? मैं क्या खाऊंगा ? किन्तु देवता एवं राक्षस गणो द्वारा उसे बंधन मुक्त नहीं किया गया। अंततः इस पुरुष ने ब्रह्मा जी को पुकारा और उनसे खाने को कुछ देने के लिए जोर जोर से करुण रुदन करने लगा, तब ब्रह्माजी ने उनकी करुण पुकार सुनकर उससे कहा कि मेरी बात सुनो -

इस प्रकार देव व राक्षस गणो द्वारा औंधे मुँह दबाये एवं घेरे जाने पर ब्रह्माजी ने शिव भक्त को वास्तु के देव अर्थात वास्तुपुरुष नाम दिया। ब्रह्माजी ने अपना आशीर्वाद देते हुए वास्तुपुरुष से कहा कि-

वास्तुके प्रसंग में तथा वैश्वदेव के अन्तमें जो बलि दी जायेगी, वह निश्चित ही तुम्हारा आहार होगी। वास्तु शान्ति के लिये जो यज्ञ होगा वह भी निश्चित ही तुम्हारा आहार होगा, वह भी तुम्हैं आहार के रूप में प्राप्त होगा।यज्ञ उत्सव आदि में भी बलि रूपमें तुम्हैं आहार प्राप्त होगा एवं अज्ञान से किया गया यज्ञ भी तुम्हैं आहाररूपमें प्राप्त होगा। ऐसा सुनकर वस वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तबसे वास्तुशान्ति के लिये वास्तु-यज्ञ का प्रवर्तन हुआ।

विभिन्न उपलक्षों पर वास्तुपुरुष के पूजन का अनिवार्य रूप से विधान है। भगवान ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप जो भी मनुष्य भवन, नगर, उपवन आदि के निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष का पूजन करेगा वह उत्तम स्वास्थ्य एवं समृद्धि संपन्न रहेगा। यूँ तो वास्तु पुरुष के पूजन के अवसरों की एक लंबी सूची है लेकिन मुख्य रूप से वास्तु पुरुष की पूजा भवन निर्माण में नींव खोदने के समय, गृह का मुख्य द्वार लगाते समय, गृह प्रवेश के समय, पुत्र जन्म के समय, यज्ञोपवीत संस्कार के समय एवं विवाह के समय अवश्य करनी चाहिए।[7]

वास्तुशास्त्र का महत्व॥ Importance of Vastu Shastra

संसार में प्राणियों के जीवन में स्त्री पुत्र आदि के सुख में साधक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति में सहायक, शीत, वर्षा एवं उष्ण काल में संरक्षक, देव आराधन, जलाशय, वाटिका आदि के निर्माण में सहयोग प्रद आदि समस्त कर्म वास्तु अधीन ही हैं जैसा कि कहा गया है-

परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तादिकाः क्रियाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते॥

गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ-प्रवेश समयं ब्रुवे॥

दूसरे के घर में किये गये श्रौत स्मार्त आदि कर्म सम्पूर्ण फलप्रद नहीं होते हैं। क्योंकि उस घर का जो स्वामी(मालिक) है वह उस फल को प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ की कोई भी क्रिया वास्तु(निवास योग्य भूमि/घर) के विना सिद्ध नहीं होती है इसलिये वास्तु का होना अत्यन्त आवश्यक है।इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-

कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर)

भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण दश लाख गुना, ईंटों के द्वारा सौ लाख गुना(कोटि) एवं पत्थरों से घर निर्माण करने पर अनन्त गुना पुण्य की प्राप्ति होती है।

वास्तु शास्त्र एवं भवन निर्माण की कला

वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश व नगरों के निर्माण की योजना से लेकर छोटे-छोटे भवनों और उनमें रखे जाने वाले फर्नीचर और वाहन निर्माण तक की योजना आ जाती है। सामान्यतः इसका मुख्य संबंध भवन निर्माण की कला है।[8]

दक्षिण परम्परा एवं उत्तर परम्परा

भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्य शिल्प की दो प्रमुख परंपरा मानी गई है। प्रथम दक्षिण परंपरा जो कि द्रविड़ शैली है दूसरी उत्तर परंपरा जिसे नागर शैली माना गया है। जहां दक्षिण की द्रविड़ शैली और उत्तर की नागर शैली दोनों शैलियों के अपने-अपने सुंदर निदर्शन होते रहे हैं वहीं दोनों एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव भी डालते हैं।

दक्षिण परम्परा - द्रविड़ शैली के आचार्य

दक्षिण परंपरा द्रविड़ शैली इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय आचार्य इस प्रकार से हैं -

ब्रह्मा, त्वष्टा, मय, मातंग, भृगु, काश्यप, अगस्त, शुक्र, पराशर, भग्नजित, नारद, प्रह्लाद, शुक्र, बृहस्पति और मानसार। वहीं मत्स्य पुराण बृहत्संहिता में २५ आचार्यों का निर्देश मिलता है जिनमें से बहुसंख्यक आचार्य द्रविड़ परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं तथा कुछ नागर परंपरा के।

दक्षिण परम्परा के वास्तु ग्रन्थ

जिनमें शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि संहिता, वैखानसागम, तंत्रग्रंथ, तंत्र समुच्चय, ईशान शिवगुरु, देव पद्धति इन सभी में आगम साहित्य अत्यधिक विशाल हैं इनमें वास्तुविद्या का वर्णन एवं विवेचन उत्कृष्ट प्रकार से किया गया है।

उत्तर परंपरा - नागर शैली आचार्य

उत्तर परंपरा (नागर शैली) इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्य विश्वकर्मा ने स्वयं पितामह से यह विद्या ग्रहण की है। मत्स्य पुराण में धर्म की १० पत्नियों में से वसु नाम की पत्नी से ८ पुत्रों में से प्रभास नामक पुत्र हुए प्रभास से विश्वकर्मा हुए जो शिल्प विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे प्रजापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। विश्वकर्मा, प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, जलाशय, बगीचा तथा कूप इत्यादि निर्माण में देवताओं के बडे ही हुए।

उत्तर परम्परा के वास्तु ग्रन्थ

वास्तुशास्त्र एवं प्राकृतिक ऊर्जा

वास्तु शास्त्र भवन निर्माण के सन्दर्भ में एक ऐसा विज्ञान है, जो कि किसी भवन अथवा आवास के अन्दर स्थित अदृश्य ऊर्जाओं और उनके द्वारा भवन में रहने वाले लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें जानकारी प्रदान करता है। हमारे चारों ओर विविध प्रकार की ऊर्जाओं के क्षेत्र (Energy Fields) विद्यमान हैं, जो कि हमें निरंतर प्रभावित कर रहे हैं। वास्तुशास्त्र का उपयोग किसी भवन विशेष में स्थित प्राकृतिक ऊर्जाओं में परस्पर समन्वय स्थापित कर भवन में सकारात्मक ऊर्जाओं का प्रवाह सुनिश्चित किया जाता है। वस्तुतः विविध प्रकार की ऊर्जा अथवा शक्तियां जैसे - [9]

  • सौर ऊर्जा (Solar Energy)
  • चन्द्र ऊर्जा (Lunar Energy)
  • पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा (Earth Energy)
  • पृथ्वी का घूर्णन (Rotation of Earth)
  • पृथ्वी का परिक्रमण (Revolution of Earth)
  • गुरुत्वाकर्षणीय शक्ति (Gravitational Energy)
  • विद्युतीय ऊर्जा (Electric Energy)
  • चुम्बकीय ऊर्जा (Magnetic Energy)
  • पवन ऊर्जा (Wind Energy)
  • तापीय ऊर्जा (Thermal Energy)
  • ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Cosmic Energy) इत्यादि हमें सतत प्रभावित करती रहती हैं।

वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga

वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -

सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान्। शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत्॥ (समरांगण सूत्रधार)

अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। वास्तुशास्त्र विषय विभाग की दृष्टि से इस प्रकार है -

  • गृह के आरम्भ में वास्तुचिन्तन
  • स्थान का शुभत्व निर्णय
  • काकिणी विचार
  • गृहद्वार निर्णय
  • ग्रामनिवासे निषिद्धस्थानानि
  • इष्टनक्षत्र का निर्णय
  • गृहपिण्ड साधन
  • आयादि विचार
  • ग्रहबल, काकशुद्धि, सम्मुख-पृष्ठफल
  • व्ययांश, शालाध्रुवांक, ध्रुवादि गृहाणि
  • आयादिनवक
  • वृषवास्तु चक्र
  • गृहारम्भे सूर्यचन्द्रनक्षादि विचारः
  • गृहारम्भे पञ्चांग शुद्धि
  • राहुमुख विचारः कूप निर्वाणं च
  • गृहरचना-फलविचरणा
  • दिक्कोणेषु उपकरण गृहानि
  • गृहारम्भ लग्नात् ग्रहस्थितिफलम्
  • गृहारम्भे नक्षत्र, वार फलानि
  • सफलं द्वारचक्रम्

वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक॥ Vastushastra ke Pravartaka

भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-[10]

ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान्। यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥

पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप ऋषिगणों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा करते हैं-

सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥

ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः।मालाकारकर्मकार्रशंखकारकुविन्दकाः॥

कुम्भकारः कांस्यकारःस्वर्णकारस्तथैव च।पतितास्तेब्रह्मशापाद अयाज्या वर्णसंकरा॥

अर्थ- मालाकार, कर्मकार, शंखकार,कुविन्द,कुम्भकार,कांस्यकार,सूत्रधार,चित्रकार और स्वर्णकार ये विश्वकर्मा के पुत्रों के रूप में विख्यात हुये। इस प्रकार विश्वकर्मा के ये सभी पुत्र विविध कलाओं में निष्णात थे।

वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा॥ Vastushastra ki Acharya Parampara

वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तुशास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-

भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥

ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥

अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः। संक्षेपेणोपदिष्टन्तु मनवे मत्स्यरूपिणा॥ (मत्स्य पुराण)[11]

अर्थात् 1.भृगु 2.अत्रि 3.वसिष्ठ 4.विश्वकर्मा 5.मय 6.नारद 7.नग्नजित् 8.विशालाक्ष 9.पुरन्दर 10.ब्रह्म 11.कुमार 12.नन्दीश 13.शौनक 14.गर्ग 15.वासुदेव 16.अनिरुद्ध 17.शुक्र 18.बृहस्पति। ये अठारह वास्तुशास्त्र प्रवर्तक मत्स्यपुराण के अनुसार हैं। अग्निपुराण में वास्तुशास्त्र प्रवर्तकों की सूची इससे भी लम्बी है, जिसमें पच्चीस आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है-

व्यस्तानि मुनिभिर्लोके पञ्चविंशतिसंख्यया। हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम्॥

वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्लादं गार्ग्यगालवम् ।नारदीयं च सम्प्रश्नं शाण्डिल्यं वैश्वकं तथा॥

सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥

आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥ (अग्नि पुराण)[12]

विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है -

इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥ वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)

इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।[13]

इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद थे।

वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra

भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-[14]

स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥ (प्रासादमण्डनम्)

अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है।

इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है।

वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार॥ Vastushastra Evam Vrksh Vichara

भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष संरक्षण, वृक्षारोपण तथा संवर्धन को विशेष महत्व दिया गया है। यही नहीं देवमयी भारतीय संस्कृतिमें तो वृक्षों की पूजा का विधान भी है। वृक्ष तीव्रगति से बढ रहे प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रोकने में पूर्ण सक्षम हैं, एवं प्राणिमात्र के स्वास्थ्य के लिये नितान्त लाभप्रद विशुद्ध वायु भी प्रदान करते हैं। वास्तव में पेड-पौधों का मानव-जीवन से सीधा संबंध है, इसीलिये वास्तुशास्त्र के अनुसार आवास स्थलों में वृक्षारोपण का उल्लेख है।

गृह-भूमि के वातावरण को प्रदूषणमुक्त एवं पवित्र बनाने के लिये वास्तुशास्त्रोक्त पेड-पौधों को लगाना महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में बृहत्संहिता में कहा है-

वर्जयेत्पूर्वतोऽश्वत्थं प्लक्षं दक्षिणतस्तथा। न्यग्रोधं पश्चिमे भागे उत्तरे वाप्युदुम्बरम्॥

अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम् ।न्यग्रोधे राजतः पीडा नेत्रामयमुदुम्बरे॥

वटः पुरस्तात् धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः। अश्वत्थःपश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः॥ (बृहत्संहिता)

अर्थ- भूखण्ड की पूर्व दिशा में पीपल, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश), पश्चिम में वट(बरगद) और उत्तर में गूलर का वृक्ष नहीं होना चाहिये। पूर्व दिशा में पीपल के होने से गृहस्वामी को भय, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश) होने से पराभव, पश्चिम में वट वृक्ष होने से शासन की ओर से दण्ड भय और उत्तर में गूलर का वृक्ष होने से भवन वासियों को नेत्र-व्याधि होती है। यदि पश्चिम में पीपल, उत्तर में पलाश, पूर्व में वट वृक्ष और दक्षिण में गूलर का वृक्ष हो तो शुभ है।

गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष॥ Grhavatika mein Tyajya Vraksha

ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-

आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥ (बृहत्संहिता)

भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है।

सारांश॥ Summary

भारतीय वास्तुकला के विज्ञान से संबंधित कुछ प्रमुख कार्यों का विस्तृत अध्ययन किया गया है, जैसे - समरांगण-सूत्रधार, विश्वकर्मा वास्तु-प्रकाश, अपराजितापृच्छा, मानसार, मयमतम् और शिल्परत्न। वैदिक वाङ्गमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड। वास्तुशास्त्र का अभिप्राय भवन निर्माण संबंधी नियमों एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। वास्तुशास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आवासीय, व्यावसायिक एवं धार्मिक भवनों आदि के लिये भूखण्ड चयन एवं निर्माण आदि के सिद्धान्तों, उपायों एवं साधनों की व्याख्या करना है। इन सिद्धान्तों एवं नियमों के पीछे पंचतत्त्वों एवं प्राकृतिक शक्तियों का अद्भुत सामंजस्य छिपा है। वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है। वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया। वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है। वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है।

उद्धरण॥ References

  1. शब्दकल्पद्रुम पृ०४/३५८।
  2. डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।
  3. शोध गंगा - ऋचा पाण्डेय, वैदिक वास्तु एवं सैंधव वास्तुकला एक अध्ययन, सन २००७, शोध केन्द्र - लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १४)।
  4. डॉ० निहारिका कुमार, वास्तु पुरुष का पौराणिक स्वरूप एवं उसका महत्व, सहायक उप शिक्षा निदेशक राज्य शिक्षा संस्थान, प्रयागराज (पृ० ५५)।
  5. शोधकर्ता - बबलू मिश्रा, वास्तु विद्या विमर्श, अध्याय-०२, सन २०१८, शोधकेन्द्र - बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० ४३)।
  6. शोध कर्ता - रितु चौधरी, मयमतम् में वास्तु विज्ञान, अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।
  7. Jump up to: 7.0 7.1 हनुमान प्रसाद पोद्दार,(सचित्रहिन्दी अनुवाद सहित) मत्स्यपुराण,सन् २०१९, गोरखपुरः गीताप्रेस अध्याय २५२ श्लोक ५/७, (पृ०९७८)
  8. डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', वास्तु कला और भवन निर्माण, सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५)।
  9. डॉ० योगेंद्र शर्मा, वास्तुशास्त्र की अवधारणा, सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१९)।
  10. शोधकर्ता-शिवम अत्रे, भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन, सन २०२३, शोधकेन्द्र-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० २३)।
  11. मत्स्य पुराण, अध्याय २५२, श्लोक २/४।
  12. अग्निपुराण, अध्यायः ३९, श्लोक २/५।
  13. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।
  14. शैल त्रिपाठी, संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व, सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।