Difference between revisions of "Temple Architecture (देवालय वास्तु)"

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==परिचय॥ Introduction==
 
==परिचय॥ Introduction==
 
देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।<ref>डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95467/1/Block-1.pdf प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु], सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।</ref> इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय लगाकर बना है - <blockquote>मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।</blockquote>
 
देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।<ref>डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95467/1/Block-1.pdf प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु], सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।</ref> इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय लगाकर बना है - <blockquote>मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।</blockquote>
मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये।<ref>डॉ द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia601404.us.archive.org/15/items/in.ernet.dli.2015.406384/2015.406384.Prasad-Nivesh_text.pdf प्रासाद-निवेश], सन १९६८, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन शाला, लखनऊ (पृ० १३)।</ref> ये कर्म हैं -<blockquote>कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है -  <blockquote>प्रासादं पुरुषं मत्वा पूजयेद् मन्त्रवित्तमः। एवमेव हरिः साक्षात् प्रासादत्वेन संस्थितः॥ (अग्निपुराण) </blockquote>मन्दिर का स्वरूप लेटे हुए पुरुष के समान कल्पित किया जाता है। जिसमें गोपुर पैर, सभामण्डप उदरभाग तथा गर्भगृह मुख्यभाग होता है। बृहत्संहिता में वराहमिहिर जी लिखते है -  
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मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये।<ref>डॉ द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://ia601404.us.archive.org/15/items/in.ernet.dli.2015.406384/2015.406384.Prasad-Nivesh_text.pdf प्रासाद-निवेश], सन १९६८, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन शाला, लखनऊ (पृ० १३)।</ref> ये कर्म हैं -<blockquote>कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है -  <blockquote>प्रासादं पुरुषं मत्वा पूजयेद् मन्त्रवित्तमः। एवमेव हरिः साक्षात् प्रासादत्वेन संस्थितः॥ (अग्निपुराण) </blockquote>मन्दिर का स्वरूप लेटे हुए पुरुष के समान कल्पित किया जाता है। जिसमें गोपुर पैर, सभामण्डप उदरभाग तथा गर्भगृह मुख्यभाग होता है। मोहनजोदड़ॊ, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों की खनन के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि देवालय निर्माण की व्यवस्था उस समय भी व्याप्त थी।  
  
कृत्वा प्रभूतं सलिलमारामान् विनिवेश्य च। देवतायतनं कुर्याद् यशोधर्माभिवृद्धये॥ (बृहत्संहिता)  
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==देव वास्तु एवं देवालय निर्माण सिद्धान्त==
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प्रासाद वास्तु में देवालय निर्माण के समय ज्योतिषीय आधार पर वास्तु संरचना को ध्यान में रखते हुए - समय निर्धारण, भूमि-परीक्षण, कार्यारम्भ के समय पूजनीय देवताओं का स्मरण, शिलान्यास का मुहूर्त, आयादि-विचार, दिक्-साधन प्रकार, खातविधि, शिलास्थापन नक्षत्र, प्रासाद-निर्माणस्थान, वास्तुपूजा के स्थान, शांति पूजा का विधान, प्रासाद प्रमाण, प्रासाद के अंगों की संख्या का निर्धारण, मण्डप की जगती, जगती के उदय का मान आदि विषय का देवालय निर्माण में ध्यान रखना चाहिए।<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/prasad-vastu-vaishishty-with-special-reference-to-marwar-royal-family-ubc759/#mz-expanded-view-1448527282405 प्रासाद वास्तु वैशिष्ट्य], ज्ञानभारती पब्लिकेशन्स, दिल्ली (पृ० २३)।</ref>
  
'''भाषार्थ -''' अपने यश और धर्म की अभिवृद्धि चाहने वाले मनुष्य को जल से युक्त जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण व वाटिका आदि बनवाकर देव-मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।
 
 
==देव वास्तु एवं देवालय निर्माण सिद्धान्त==
 
 
देव पूजन के निर्मित वह स्थान जहाँ पर देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन या इन से संबंधित अनुष्ठान आदि किया जाता हो उस स्थान या भवन को देव वास्तु कहते हैं। यह वास्तु मुख्यतया पाँच प्रकार के होते हैं - <ref>शोधगंगा- बबलु मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/479623 वास्तु विद्या विमर्श], सन २०१८, शोधकेन्द्र - बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, अध्याय-२ (पृ० ४५)।</ref>
 
देव पूजन के निर्मित वह स्थान जहाँ पर देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन या इन से संबंधित अनुष्ठान आदि किया जाता हो उस स्थान या भवन को देव वास्तु कहते हैं। यह वास्तु मुख्यतया पाँच प्रकार के होते हैं - <ref>शोधगंगा- बबलु मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/479623 वास्तु विद्या विमर्श], सन २०१८, शोधकेन्द्र - बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, अध्याय-२ (पृ० ४५)।</ref>
  
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अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है।
 
अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है।
  
===देवालय निर्माण का स्थान॥ Place of temple construction===  
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===देवालय निर्माण का स्थान॥ Place of temple construction ===  
  
वास्तुशास्त्र में देवालय निर्माण को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। मयमतम्, मानसार, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण आदि में देवालय वास्तु के विस्तृत विवरण मिलते हैं। देवालय का निर्माण दिशाओं, मापन, अनुपात, स्थल चयन और ऊर्जा प्रवाह के संतुलन पर आधारित होते हैं। देवालय का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है -  <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।
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वास्तुशास्त्र में देवालय निर्माण को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। मयमतम्, मानसार, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण आदि में देवालय वास्तु के विस्तृत विवरण मिलते हैं। देवालय का निर्माण दिशाओं, मापन, अनुपात, स्थल चयन और ऊर्जा प्रवाह के संतुलन पर आधारित होते हैं। देवालय का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है -  <blockquote>नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्) </blockquote>'''भाषार्थ -''' नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। बृहत्संहिता में वराहमिहिर जी लिखते है -<blockquote>कृत्वा प्रभूतं सलिलमारामान् विनिवेश्य च। देवतायतनं कुर्याद् यशोधर्माभिवृद्धये॥ (बृहत्संहिता) </blockquote>'''भाषार्थ -''' अपने यश और धर्म की अभिवृद्धि चाहने वाले मनुष्य को जल से युक्त जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण व वाटिका आदि बनवाकर देव-मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।  
  
 
===स्थल चयन एवं भूमिपूजन॥ Bhumi Nirupana===
 
===स्थल चयन एवं भूमिपूजन॥ Bhumi Nirupana===
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!द्राविड
 
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#मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
 
#मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
# मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
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#मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
 
#जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
 
#जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
# कपोत- कार्निस।
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#शिखर - मन्दिर का शीर्षभाग अथवा गर्भ गृह का ऊपरी भाग।
 
#शिखर - मन्दिर का शीर्षभाग अथवा गर्भ गृह का ऊपरी भाग।
 
#ग्रीवा - शिखर का ऊपरी भाग।
 
#ग्रीवा - शिखर का ऊपरी भाग।
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|शिखर की संरचना पर्वतशृंग के समान
 
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|शिखर के साथ उपशिखर की ऊर्ध्व-रैखिक परम्परा
 
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|शिखर का क्षैतिज विभाजन और शिखर पर भी मूर्तियों की परम्परा
 
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|गर्भगृह के सामने मण्डप आवश्यक नहीं, प्रायः शिखरविहीन मण्डप, चावडी या चौलित्री के रूप में स्तंभ युक्त महाकक्ष
 
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|द्वार के रूप में सामान्यतः तोरण द्वार
 
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|द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम्
 
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|परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय
 
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|मंदिर प्रांगण में पृथक दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान नहीं
 
|मंदिर प्रांगण में पृथक दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान नहीं
 
|प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान
 
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|सामान्यतः नागर शैली की तुलना में अधिक ऊँचाई
 
|सामान्यतः नागर शैली की तुलना में अधिक ऊँचाई

Revision as of 19:34, 11 June 2025

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देवालय वास्तु (संस्कृतः देवालयवास्तु) अर्थात देवता का निवास स्थान, इस भूलोक में देवता जिस भवन में निवास करते हैं, उस भवन को वास्तुशास्त्र में देवालय तथा प्रासाद कहा गया है। देवालय, राजगृह एवं भवनादि निर्माण में वास्तुशास्त्र का उपयोग वैदिक काल से देखने को प्राप्त होता है।

परिचय॥ Introduction

देवताओं का निवास स्थान देवालय कहलाता है। देवालय शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसको और भी पर्याय नामों से जानते हैं - प्रासाद, देवायतन, देवालय, देवनिकेतन, देवदरबार, देवकुल, देवागार, देवरा, देवकोष्ठक, देवस्थान, देवगृह, ईश्वरालय, मन्दिर इत्यादि।[1] इसी प्रकार मन्दिर शब्द संस्कृत भाषा के मन्द शब्द में किरच प्रत्यय लगाकर बना है -

मन्द्यते सुप्यते अत्र इति मन्दिरम्।

मन्दिर शब्द शिथिल व विश्रान्ति का वाचक होने से मूलतः गृह के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु कालान्तर में अर्थान्तरित होकर देवगृह के लिए रूढ हो गया। देवालय निर्माण के आरम्भ से लेकर बाद तक, देवप्रतिष्ठा तक सात कर्म होते हैं। जिन्हें विधि के अनुसार पूर्ण करना चाहिये।[2] ये कर्म हैं -

कूर्म्मसंस्थापने द्वारे पद्माख्यायां तु पौरुषे। घटे ध्वजे प्रतिष्ठायां एवं पुण्याहसप्तकम्॥ (प्रासादमण्डनम्)

कूर्मस्थापना, द्वार स्थापना, पद्मशिला स्थापना, प्रासाद पुरुष की स्थापना, कलश, ध्वजा रोहण तथा देव प्रतिष्ठा ये प्रमुख सात कर्म होते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है -

प्रासादं पुरुषं मत्वा पूजयेद् मन्त्रवित्तमः। एवमेव हरिः साक्षात् प्रासादत्वेन संस्थितः॥ (अग्निपुराण)

मन्दिर का स्वरूप लेटे हुए पुरुष के समान कल्पित किया जाता है। जिसमें गोपुर पैर, सभामण्डप उदरभाग तथा गर्भगृह मुख्यभाग होता है। मोहनजोदड़ॊ, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों की खनन के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि देवालय निर्माण की व्यवस्था उस समय भी व्याप्त थी।

देव वास्तु एवं देवालय निर्माण सिद्धान्त

प्रासाद वास्तु में देवालय निर्माण के समय ज्योतिषीय आधार पर वास्तु संरचना को ध्यान में रखते हुए - समय निर्धारण, भूमि-परीक्षण, कार्यारम्भ के समय पूजनीय देवताओं का स्मरण, शिलान्यास का मुहूर्त, आयादि-विचार, दिक्-साधन प्रकार, खातविधि, शिलास्थापन नक्षत्र, प्रासाद-निर्माणस्थान, वास्तुपूजा के स्थान, शांति पूजा का विधान, प्रासाद प्रमाण, प्रासाद के अंगों की संख्या का निर्धारण, मण्डप की जगती, जगती के उदय का मान आदि विषय का देवालय निर्माण में ध्यान रखना चाहिए।[3]

देव पूजन के निर्मित वह स्थान जहाँ पर देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन या इन से संबंधित अनुष्ठान आदि किया जाता हो उस स्थान या भवन को देव वास्तु कहते हैं। यह वास्तु मुख्यतया पाँच प्रकार के होते हैं - [4]

  1. पूजास्थल - मन्दिर मण्डप आदि
  2. साधनास्थल - मठ, आश्रम, आदि
  3. सार्वजनिक स्थल - विश्रामस्थल, धर्मशाला आदि
  4. जलाशय - कुआँ, बावडी, सरोवर आदि
  5. संस्थान - वेदपाठशाला, धार्मिक एवं दातव्य संस्थान आदि

देव वास्तु के अन्तर्गत यज्ञमण्डप, वेदी, कुण्ड आदि भी आते हैं। शास्त्रों में व वास्तुशास्त्र के प्राचीनतम वास्तुग्रन्थ विश्वकर्मप्रकाश एवं मयमतम् आदि में इनका प्रतिपादन किया गया है।

प्रासादों या मंदिरों के निर्माण में ईंटों एवं पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। इनके प्रमुख भागों-मंडप, शिखर, कदलीकरण, अधिष्ठान (Base), पीठ, उपपीठ आदि का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होता है। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता के अनुसार -[5]

  1. मंदिर की ऊंचाई उसकी चौडाई से दोगुनी होनी चाहिए।
  2. कटि तक का भाग कुल ऊँचाई का एक-तिहाई (१/३) होना चाहिए।
  3. मंदिर के प्रमुख भाग की आंतरिक चौडाई मंदिर के बाह्यभाग की चौडाई से आधी (१/२) होनी चाहिए।
  4. प्रमुख द्वार की ऊँचाई-चौडाई की दोगुनी तथा भवन की ऊँचाई की चौथाई (१/४) होनी चाहिए।
  5. प्रमुख मूर्ति की ऊँचाई द्वार की ऊँचाई की १/८ हो।
  6. मूर्ति और उसके आधार (Pedestal) में २/३:१/३ का अनुपात हो।

देवगढ (ललित पुर) एवं मुंडेश्वरी (बिहार) में गुप्तकाल के मंदिर (६०० ई०) में उपर्युक्त बातों का ध्यान रखा गया है। उत्तर भारत के अधिकतर मंदिरों का निर्माण समरांगणसूत्रधार (१०५० ई०) तथा अपराजित पृच्छा (१२०० ई०) के आधार पर हुआ है। समरांगणसूत्रधार के अनुसार जगती (Platform terrace) प्रमुख प्रासाद की चौडाई से १/३ अधिक चौडा होना चाहिए तथा इसकी ऊँचाई निम्नलिखित अनुपात में होनी चाहिए -[6]

मंदिर का परिमाण
मंदिर की ऊँचाई जगती की ऊँचाई
१५ फुट तक मंदिर की ऊँचाई का आधा (१/२)
१६-३० फुट तक मंदिर की ऊँचाई का तिहाई (१/३)
३१-७५ फुट तक मंदिर की ऊँचाई का चौथाई (१/४)

अपराजित पृच्छ द्वारा दिया गया पीठ (Socle) एवं प्रासाद (Entire edifice) की ऊँचाइयों का अनुपात अधिक व्यावहारिक है।

देवालय निर्माण का स्थान॥ Place of temple construction

वास्तुशास्त्र में देवालय निर्माण को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। मयमतम्, मानसार, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण आदि में देवालय वास्तु के विस्तृत विवरण मिलते हैं। देवालय का निर्माण दिशाओं, मापन, अनुपात, स्थल चयन और ऊर्जा प्रवाह के संतुलन पर आधारित होते हैं। देवालय का निर्माण शास्त्रों में बताए गये स्थानों पर ही करना चाहिए। जैसा कि प्रासादमण्डन ग्रन्थ में प्राप्त होता है -

नद्यां सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गह्वरे। वापी-वाटी तडागादी स्थाने कार्यं सुरालयम्॥ (प्रासादमण्डनम्)

भाषार्थ - नदी के तट पर, सिद्धपुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थ भूमि, शहर, गांव, पर्वत की गुफाओं में, बावडी, उपवन और तालाब आदि स्थलों पर मन्दिर का निर्माण करना चाहिए। बृहत्संहिता में वराहमिहिर जी लिखते है -

कृत्वा प्रभूतं सलिलमारामान् विनिवेश्य च। देवतायतनं कुर्याद् यशोधर्माभिवृद्धये॥ (बृहत्संहिता)

भाषार्थ - अपने यश और धर्म की अभिवृद्धि चाहने वाले मनुष्य को जल से युक्त जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण व वाटिका आदि बनवाकर देव-मन्दिर का निर्माण करना चाहिए।

स्थल चयन एवं भूमिपूजन॥ Bhumi Nirupana

देवालय हेतु भूमि चयन एक विशिष्ट प्रक्रिया है। भूमि परीक्षण हेतु गन्ध, स्पर्श, रूप, स्वाद आदि के परीक्षण के अतिरिक्त निम्न प्रयोग किए जाते हैं - कुर्म परीक्षण, नवनीत परीक्षण, कांस्य परीक्षण। भूमिपूजन में वास्तुपुरुष मंडल की स्थापना कर, दशदिक्पालों का आवाहन कर यज्ञादि होता है।

देवालय की योजना एवं दिशा-निर्धारण

देवालय की योजना वास्तुपदमण्डल के आधार पर बनाई जाती है, जो 64 या 81 खण्डों में विभक्त होता है। गर्भगृह (मूलस्थान), सभामण्डप, अंतराल, प्रदक्षिणापथ, गोपुर आदि भाग नियत क्रम में होते हैं। ईशान कोण को सर्वोत्तम माना गया है। दिशा के अनुसार विभिन्न देवताओं की प्रतिष्ठा की जाती है।

गर्भगृह का शास्त्रीय स्वरूप

गर्भगृह देवालय का अत्यंत पवित्र एवं सूक्ष्म केंद्र होता है। यह प्रायः वर्गाकार होता है, जहाँ पर मूलविग्रह की प्रतिष्ठा होती है। यहाँ प्रकाश का प्रवेश न्यूनतम रखा जाता है ताकि ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित हो। इसकी दीवारें मोटी होती हैं जिससे ध्वनि की अनुनाद क्षमता न्यूनतम रहे। गर्भगृह प्रमाण के सन्दर्भ में -

देवतानां गर्भगेहं वास्तुभूमिवशान्मतम्। दीर्घं वा चतुरश्रं वा धनुर्वद्गजपृष्ठकम्॥ (विश्वकर्मवास्तुशास्त्रम्)

भाषार्थ - देवताओं के गर्भगृहों का निर्माण वास्तुभूमिवशात् होता है। इनमें से कोई गर्भगृह लम्बा हो सकता है, कोई चतुरस्र हो सकता है, कोई धनुषाकार तो कोई गर्भगृह गजपृष्ठ जैसा हो सकता है।[7]

शिखर और गोपुर॥ Shikhara Pramana

संस्कृत में शिखर का शाब्दिक अर्थ 'पर्वत की चोटी' है किन्तु भारतीय वास्तुशास्त्र में उत्तर भारतीय मन्दिरों के गर्भगृह के ऊपर पिरामिड आकार की संरचना को शिखर कहते हैं। दक्षिण भारत में इसी को 'विमानम्' कहते हैं। देवालय का शिखर ऊर्जा का प्रतीक होता है। नागर, द्रविड़ तथा वेसर – ये तीन प्रमुख शैलियाँ भारत में प्रचलित रही हैं। शिखर की ऊँचाई, संख्या, और रूपाकार देवता, स्थान तथा युगानुसार नियत होता है। गोपुर दक्षिण भारत में प्रमुख है तथा प्रवेशद्वार के रूप में ऊँचा स्थापत्य होता है।

प्रासाद के प्रकार॥ Prasada ke Prakara

विमान॥ Vimana

यह संरचना मूलतः स्थल योजना में चौकोर अथवा आयताकार होती है और यह पिरामिडीय ढांचे की तरह ऊपर को कम होता जाता है। इसे कई मंजिलों तक ऊंचा बनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार विमान विविध अनुपातिक परिमाणों के साथ निर्मित मंदिर का नाम है।

गोपुरम॥ Gopuram

गोपुरम दक्षिण भारतीय मंदिरों का प्रवेश द्वार है। गोपुरम शब्द का उद्भव वैदिक काल के ग्रामों के गो-द्वार से हुआ और धीरे-धीरे यही गो-द्वार-मंदिरों के विशाल प्रवेश द्वार बन गये, जिन्हें यात्रीगण बहुत दूर से भी देख सकते थे। गोपुरम की भवन-योजना आयताकार होती है। गोपुरम की पिरामिडीय बनावट को सुदृढता प्रदान करने के लिए इसकी सबसे नीचे की दो मंजिलें ऊंचाई में बराबर बनाई जाती हैं।

मंडप॥ Mandapa

मंडप सामान्यतः एक स्तंभयुक्त सभागृह अथवा ड्योढी (द्वार मंडप) होता है, जहां पर भक्तगण मंदिर की देवी, देव अथवा ईश्वरीय प्रतीक को अपना भक्ति भाव समर्पित करने से पहले एकत्रित होते हैं। मंडप को सीधे गर्भ-गृह से भी जोडा जाता है। इस मंडप को पूर्ण रूप से या इसका कुछ भाग बंद किया जा सकता है अथवा मंडप को बिना दीवारों के भी बनाया जा सकता है। कुछ मंदिरों में उदाहरणार्थ-मामल्लापुरम में, समुद्र तट पर स्थित मंदिर के मंडप तथा कांचीपुरम स्थित कैलाशनाथ मंदिर में मंडप मुख्य तीर्थ मंदिर से अलग बने हुए हैं।

शिखर॥ Shikhara

सामान्यतया मंदिर शब्द सुनते ही हमारे समक्ष गर्भ-गृह की चोटी पर बनी ऊंची अधि-रचना आ जाती है। शिखर का शाब्दिक अर्थ पर्वत की चोटी है, जो विशेष रूप से भारतीय मंदिर की अधि-रचना का पर्याय है। विद्वानों का मत है कि शिखर का अर्थ सिर है और इसे शिखा शब्द से ग्रहण किया गया है।

कलश॥ Kalash

कलश का शाब्दिक अर्थ है-घडा। मन्दिरों के शीर्ष भाग अर्थात गुम्बद पर स्थित होता है।इसके अतिरिक्त सनातन धर्म में सभी कर्मकांडों के समय उपयोग किए जाने वाले घडे को भी कलश कहा जाता है। जो कांस्य, ताम्र, रजत, स्वर्ण या मृत्तिका का होता है तथा इसके ऊपर श्रीफल (नारियल) रखा जाता है। इसमें सभी देवताओं का स्थान माना जाता है।

गर्भ-गृह॥ Garbha-Griha

गर्भ-गृह, निश्चित रूप से एक गहरा अंधेरा कक्ष होता है। जिसमें देवताओं की मूर्ति स्थापित की जाती है। गर्भगृह ही मन्दिर का मुख्य भाग होता है। यह जगती या मण्ड के ऊपर बना होने के कारण मंडोवर भी कहलाता है। गर्भगृह के एक ओर मन्दिर का द्वार तथा तीन ओर भित्तियों का निर्माण होता है। प्रायः द्वार को बहुत अलंकृत बनाया जाता था उसके स्तंभ कई भागों में बँटे होते थे। प्रत्येक बाँट को शाखा कहते थे। द्विशाख, त्रिशाख, पंचशाख, सप्तशाख, नवशाख तक द्वार के पार्श्वस्तंभों का वर्णन मिलता है। इनके ऊपर प्रतिहारी या द्वारपालों की मूर्तियाँ अंकित की जाती हैं। एवं प्रमथ, श्रीवक्ष, फुल्लावल्ली, मिथुन आदि अलंकरण की शोभा के लिए बनाए जाते हैं। गर्भगृह के द्वार के उत्तरांग या सिरदल पर एक छोटी मूर्ति बनाई जाती है, जिसे ललाट बिम्ब कहते हैं। प्रायः यह मन्दिर में स्थापित देवता के परिवार की होती है; जैसे विष्णु के मन्दिरों में या तो विष्णु के किसी अवतार विशेष की या गरुड़ की छोटी मूर्ति बनाई जाती है। गुप्तकाल में मन्दिर के पार्श्वस्तंभों पर मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना की मूर्तियाँ अंकित की जाने लगीं। गर्भगृह के तीन ओर की भित्तियों में बाहर की ओर जो तीन प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, उन्हें रथिकाबिम्ब कहते हैं। ये भी देवमूर्तियाँ होती हैं जिन्हें गर्भगृह की प्रदक्षिणा करते समय प्रणाम किया जाता है।

प्रमुख शैलियां॥ Pramukh Shailiyan

देवालय वास्तु - प्रमुख शैलियां

देववास्तु के अनुसार भारत के मंदिरों को साधारणतया तीन शैलियों में वर्गीकृत किया गया है -[8]

  1. उत्तर भारत के मंदिर - नागर शैली
  2. मध्यवर्ती भारत के मंदिर - चालुक्य अथवा बेसर-शैली
  3. दक्षिण भारत के मंदिर - द्राविड़ शैली

नागरं द्राविणं चैव वेसरं च त्रिधा मतम्। कण्ठाद्यारभ्य वृत्तं यद् वेसरं चेति तत्स्मृतम्॥

ग्रीवामारभ्य चाष्टास्रं विमानं द्राविडाख्यकम्। सर्वं वै रचुरस्त्रं यत् प्रासादं नागरं त्विदम्॥ (समरांगण सूत्रधार)

मन्दिर स्थापत्य-कला शैली
नागर द्राविड वेशर
हिमालय से विंध्य कृष्णा से कन्याकुमारी विंध्य से कृष्णा नदी तक

नागर शैली॥ Urban Style

देवालय वास्तु - प्रमुख अंग

नागर शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण अथवा संख्या में बाहुल्य होने के कारण इन्हें नागर की संज्ञा दी गई है। शिल्पशास्त्र के अनुसार नागर मन्दिरों के आठ प्रमुख अंग हैं -

  1. मूल या आधार - जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
  2. मसूरक - नींव और दीवारों के बीच का भाग।
  3. जंघा - दीवारें (विशेष रूप से गर्भगृह आदि की दीवारें)।
  4. कपोत- कार्निस।
  5. शिखर - मन्दिर का शीर्षभाग अथवा गर्भ गृह का ऊपरी भाग।
  6. ग्रीवा - शिखर का ऊपरी भाग।
  7. वर्तुलाकार आमलक - शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का भाग।
  8. कलश - शिखर का शीर्षभाग।

परंतु ये आठ भी पूर्ण या पर्याप्त नहीं हैं. अधिष्ठान का ऊपरी प्लेटफार्म जगती कहलाता है। मूल मंदिर के शिखर के उपरांत एक अंतराल देकर स्तूपवत् मंडप भी बनते हैं। ये भी क्रमशः घटती ऊँचाई व विस्तार के साथ महामंडप, मंडप, अर्धमंडप कहलाते हैं। द्वार व स्तंभ बहुधा सर्पाकृति आरोह अवरोह लिए बनने लगे, तोरण द्वार के रूप में. शिखर में जुड़ने वाले उपशिखर उरुशृंग कहे जाते हैं। शिखर को विमान भी कहा जाता है। मंदिर के विभिन्न स्थानों पर गवाक्ष भी दिख सकते हैं।[9]

द्राविड़ शैली॥ Dravidian Style

यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के हैं। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार 'गोपुरम्' कहलाता है। प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है।


वेसर शैली॥ Weser Style

नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर शैली की संज्ञा दी गई है। वेसर शब्द कन्नड़ भाषा के 'वेशर' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- रूप. नवीन प्रकार की रूप-आकृति होने के कारण इसे वेशर शैली कहा गया, जो भाषांतर होने पर वेसर या बेसर बन गया. यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है। इस शैली के मंदिरों की संख्या सबसे कम है. इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं। कर्नाटक व महाराष्ट्र इन मंदिरों के केंद्र माने जाते हैं। विशेषतः राष्ट्रकूट, होयसल व चालुक्य वंशीय कतिपय मंदिर इसी शैली में हैं।[10]

मंदिर की नागर व द्रविड़ शैलियों में सामान्य अंतर
क्र० सं० नागर शैली द्रविड़ शैली
1 वर्गाकार आधार पर निर्मित आयताकार आधार पर निर्मित
2 शिखर की संरचना पर्वतशृंग के समान शिखर की संरचना प्रिज्म या पिरामिड के समान
3 शिखर के साथ उपशिखर की ऊर्ध्व-रैखिक परम्परा शिखर का क्षैतिज विभाजन और शिखर पर भी मूर्तियों की परम्परा
4 शिखर के शीर्ष भाग पर ऊर्ध्व-रैखिक आमलक एवं उसके ऊपर कलश शिखर के शीर्ष भाग पर कलश की जगह बेलनाकार व एक ओर से अर्धचंद्राकार संरचना एवं उसके ऊपर अनेक कलशवत स्तूपिकाएं
5 शिखर सामान्यतः एक-मंजिले शिखर सामान्यतः बहु-मंजिले
6 गर्भगृह के सामने मण्डप व अर्द्धमण्डप गर्भगृह के सामने मण्डप आवश्यक नहीं, प्रायः शिखरविहीन मण्डप, चावडी या चौलित्री के रूप में स्तंभ युक्त महाकक्ष
7 द्वार के रूप में सामान्यतः तोरण द्वार द्वार के रूप में सामान्यतः विशाल गोपुरम्
8 मंदिर का सामान्य परिसर मंदिर का विशाल प्रांगण
9 परिसर में जलाशय आवश्यक नहीं परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय
10 मंदिर प्रांगण में पृथक दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान नहीं प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान
11 सामान्यतः द्रविड शैली की तुलना में कम ऊँचाई सामान्यतः नागर शैली की तुलना में अधिक ऊँचाई

देवालय निर्माण का महत्व

जो गृहस्थ अपनी क्षमता के अनुरूप भगवान का मन्दिर बनवाता है, वह असीम पुण्य का अर्जन करता है। तथा वर्तमान एवं भविष्य दोनों को सुखी करता है। अनेक जन्म के पुण्य संचय से यह अवसर उपस्थित होता है कि व्यक्ति भगवान का मन्दिर बनवाये। शिल्पशास्त्र में भी नवीन मन्दिर का निर्माण करवाने वाले उपासक को पुण्यार्जन का उल्लेख उपलब्ध होता है -

पितामहस्य पुरतः कुलान्यष्टौ तु यानि वै। तारयेदात्मना सार्धं विष्णोर्मन्दिरकारकः। अपि नः सत्कुले कश्चित् विष्णुभक्तो भविष्यति॥

ये ध्यायन्ति सदा भक्त्या करिष्यामो हरेगृहम्। तेषां विलीयते पापं पूर्वजन्मशतोसवम्॥

सुरवेश्मनि यावन्तो द्विजेन्द्राः परमाणवः। तावद् वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते॥ (विश्वकर्मवास्तु प्रकाश)

भाषार्थ - जो व्यक्ति भगवान विष्णु का मन्दिर बनवाता है, वह अपने को तो तारता ही है अपितु अपने पितामह से आगे की आठ पीढियों को भी तार देता है। जो मन में ऐसी इच्छा करता है कि हमारे वंश में कोई विष्णुभक्त उत्पन्न हो तथा मैं विष्णु का मन्दिर बनवाऊंगा ऐसा संकल्प करता है तो उस व्यक्ति के एक सौ जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

निष्कर्ष॥ Summary

देवालय वास्तु भारतीय जीवन-दर्शन, शिल्पविद्या, और आध्यात्मिक चेतना का समन्वय है। यह स्थूल रूप में ईश्वर का निवास और सूक्ष्म रूप में मानव की आत्मिक यात्रा का केन्द्र है। शास्त्रों पर आधारित इसकी रचना न केवल आध्यात्मिक उन्नयन में सहायक है, बल्कि वास्तु और शिल्पकला की उत्कृष्टता का भी प्रतीक है। भारतीय स्थापत्य कला व शिल्प कला में उपयोग होने वाली शैलियों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है - नागर शैली, द्राविडशैली वेसर शैली। इन तीनों शैलियों के मन्दिर प्रायः भारत वर्ष में देखने को मिलते हैं। बृहत्संहिता के प्रसाद-लक्षणाध्याय (श्लोक ३१) में २० प्रकार के देवमंदिरों (प्रासादों) के निर्माण की विधि दी है।[11]

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० ब्रह्मानन्द मिश्र, प्रासाद, ग्राम एवं नगर-वास्तु, सन २०२३, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १९)।
  2. डॉ द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रासाद-निवेश, सन १९६८, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन शाला, लखनऊ (पृ० १३)।
  3. डॉ० जितेन्द्र व्यास, प्रासाद वास्तु वैशिष्ट्य, ज्ञानभारती पब्लिकेशन्स, दिल्ली (पृ० २३)।
  4. शोधगंगा- बबलु मिश्रा, वास्तु विद्या विमर्श, सन २०१८, शोधकेन्द्र - बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, अध्याय-२ (पृ० ४५)।
  5. आचार्य वराह मिहिर, व्याख्याकार- पं० अच्युतानन्द झा, बृहत्संहिता-विमला हिन्दीव्याख्यायुता, अध्याय - ५६, प्रासादलक्षण, सन २०१४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० १२७)।
  6. श्वेता उप्पल, संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी, सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।
  7. डॉ० श्रीकृष्ण 'जुगनू', विश्वकर्म वास्तुशास्त्रम् - मोहनबोधिनी हिन्दी व्याख्यासमेत, सन २०१०, परिमल पब्लिकेशन्स, दिल्ली, अध्याय-११, श्लोक-२० (पृ० १३३)।
  8. देवेन्द्र नाथ ओझा, देव वास्तु की विविध शैलियों का विमर्श, सन २०२०, सेंट्रल संस्कृत यूनिवर्सिटी, उत्तराखण्ड (पृ० ९६)।
  9. मंदिरों का इतिहास, देवस्थान विभाग-राजस्थान।
  10. सोनू द्विवेदी, मंदिर निर्माण शैली, सन २०२५, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १६)।
  11. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० १२४)।